यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान
' ग़ालिब '
ग़ज़ल in होता
न था कुछ तो ख़ुदा
था, कुछ न होता तो
ख़ुदा होता
डुबोया मुझको
होने ने, न होता
मैं तो क्या होता ?
हुआ जब ग़म
से यूँ बेहिस तो ग़म क्या सर के
कटने का ?
न
होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा
होता
हुई
मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वह हर एक
बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या
होता ?
To Fran Pritchett's annotated
version in "Desertful of
Roses".
To index of poetry.
To index of मल्हार.
Keyed in and posted 24 Mar 2003.